जिंदगी की संतुष्टि हमारी जरूरतें तय करती है। जिसकी जरुरते ज्यादा होती है उनको कम से कम चीजों मे खुशी नही मिलती। अगर किसी के लिए कोई चीज बेकार है या बेकार हो चुकी है पर वही चीज किसी और के लिए बहुत महत्वपूर्ण और एक खुशी की संतुष्टि प्रदान करने वाले हो सकती है। इस छोटी सी कहानी मे एक इसी प्रकार की खुशी देने वाला संदेश छुपा हुआ है। इस कहानी को शुरू करने से पहले मै आपको बता देना चाहता हूँ कि कही ना कही आत्मिक शांति और सांसारिक वस्तुओं का गहरा सम्बन्ध है।
रोज की तरह मैं छत पर बैठा हुआ अपनी किताब के पन्ने पलट रहा था । अचानक मेरी नजर बाहर की तरफ गई। एक बच्चा अपनी साईकिल लिए गली के एक कोने से दूसरे कोने की तरफ चक्कर लगा रहा था। उसके चहरे पर ऐसी खुशी थी जैसे उसने सब कुछ पा लिया हो। उसकी माँ भी अपने घर के बाहर खड़ी उसे देख रही थी। उसके चेहरे पर भी मुस्कान साफ दिखाई दे रही थी और हो भी क्यों ना ? माँ-बाप की खुशी उनके बच्चों की खुशी मे ही छुपी होती है।
मैं जब भी शाम को छत पर जाता तो वो बच्चा अपनी साईकिल के साथ खेल रहा होता । मैं उसकी तरफ बड़ी ध्यान से देखता रहता । वो साईकिल के साथ कई तरह के करतब करने की कोशिश करता लेकिन घर के बाहर खड़ी उसकी माँ उसे डाँट देती। फिर वो बच्चा धीरे-धीरे से साईकिल चलाने लगता । एक दिन ऐसे ही मेरी नजर कुछ और बच्चो पर पड़ी । शायद वो पास की झुग्गी बस्ती से आए थे । वो बच्चे भी गली की एक तरफ खड़े होकर उस साईकिल वाले बच्चे की तरफ देख रहे थे।
उनके चेहरे के हावभाव से साफ पता चल रहा था कि वह भी साईकिल चलाना चाहते है। पर ऐसा लगा, जैसे गरीबी ने उन बच्चो को जिंदगी की सवारी के लिए सिर्फ दो पैर ही दिए है। जब साईकिल वाला बच्चा घर चला जाता तो वो बच्चे भी अपने घर चले जाते ।
ऐसे ही दिन बीतते चले गए और बच्चे की साईकिल का रंग फीका पड़ गया । साईकिल का हैंडल भी टूट गया था । तो उस बच्चे ने अपनी माँ से कहा कि यह साईकिल पुरानी हो गई है । उसे एक नई साईकिल चाहिए । माँ ने अपने बेटे को नई साईकिल ला दी। उसका बेटा नई साईकिल पाकर बहुत खुश हुआ ।
जब मैने अगले दिन देखा तो नई साईकिल वाला बच्चा तो साईकिल चला ही रहा था। गरीब बच्चे भी एक पुरानी साईकिल लेकर उसी गली मे आ गए । उन गरीब बच्चो के चेहरे पर भी बिल्कुल वैसे ही खुशी थी जैसे नई साईकिल वाले बच्चे के चेहरे पर थी। जब मैंने थोड़े ध्यान से देखा तो वो पुरानी साईकिल उसी बच्चे की थी जो नई साईकिल चला रहा था।
Written by Rashpal Singh
रोज की तरह मैं छत पर बैठा हुआ अपनी किताब के पन्ने पलट रहा था । अचानक मेरी नजर बाहर की तरफ गई। एक बच्चा अपनी साईकिल लिए गली के एक कोने से दूसरे कोने की तरफ चक्कर लगा रहा था। उसके चहरे पर ऐसी खुशी थी जैसे उसने सब कुछ पा लिया हो। उसकी माँ भी अपने घर के बाहर खड़ी उसे देख रही थी। उसके चेहरे पर भी मुस्कान साफ दिखाई दे रही थी और हो भी क्यों ना ? माँ-बाप की खुशी उनके बच्चों की खुशी मे ही छुपी होती है।
मैं जब भी शाम को छत पर जाता तो वो बच्चा अपनी साईकिल के साथ खेल रहा होता । मैं उसकी तरफ बड़ी ध्यान से देखता रहता । वो साईकिल के साथ कई तरह के करतब करने की कोशिश करता लेकिन घर के बाहर खड़ी उसकी माँ उसे डाँट देती। फिर वो बच्चा धीरे-धीरे से साईकिल चलाने लगता । एक दिन ऐसे ही मेरी नजर कुछ और बच्चो पर पड़ी । शायद वो पास की झुग्गी बस्ती से आए थे । वो बच्चे भी गली की एक तरफ खड़े होकर उस साईकिल वाले बच्चे की तरफ देख रहे थे।
उनके चेहरे के हावभाव से साफ पता चल रहा था कि वह भी साईकिल चलाना चाहते है। पर ऐसा लगा, जैसे गरीबी ने उन बच्चो को जिंदगी की सवारी के लिए सिर्फ दो पैर ही दिए है। जब साईकिल वाला बच्चा घर चला जाता तो वो बच्चे भी अपने घर चले जाते ।
ऐसे ही दिन बीतते चले गए और बच्चे की साईकिल का रंग फीका पड़ गया । साईकिल का हैंडल भी टूट गया था । तो उस बच्चे ने अपनी माँ से कहा कि यह साईकिल पुरानी हो गई है । उसे एक नई साईकिल चाहिए । माँ ने अपने बेटे को नई साईकिल ला दी। उसका बेटा नई साईकिल पाकर बहुत खुश हुआ ।
जब मैने अगले दिन देखा तो नई साईकिल वाला बच्चा तो साईकिल चला ही रहा था। गरीब बच्चे भी एक पुरानी साईकिल लेकर उसी गली मे आ गए । उन गरीब बच्चो के चेहरे पर भी बिल्कुल वैसे ही खुशी थी जैसे नई साईकिल वाले बच्चे के चेहरे पर थी। जब मैंने थोड़े ध्यान से देखा तो वो पुरानी साईकिल उसी बच्चे की थी जो नई साईकिल चला रहा था।
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